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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


‘‘जिस दिन यह प्रश्न कांग्रेस के खुले अधिवेशन में उपस्थित होने वाला था, मालवीय जी के ठहरने के स्थान पर बाल गंगाधर तिलक गये। दोनों में इसी विषय पर वार्त्तालाप हुआ।

‘‘तिलक जी का कहना था यदि सब हिन्दू इस प्रस्ताव का एक-एक मत हो समर्थन नहीं करते तो मुसलमानों के मन पर इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा।

‘‘मालवीय जी कहते थे, मैं इस प्रस्ताव को धर्म-विरुद्ध मानता हूं। जिसका जो अधिकार नहीं है, उसे वह देना अधर्म है। जिसका अधिकार छीन कर दिया जा रहा है, यह उससे अन्याय है। उनसे पूछकर दिया जाये तो यह दान-दक्षिणा हो सकती है, परन्तु इस विषय में हिन्दुओं ने अपना प्रातिनिध्य करने का अधिकार हमें नहीं दिया। मैं इसका विरोध कर रहा हूं।’’

‘‘मालवीय जी का यह भी कहना था कि इसको स्वीकार करने का मैं अधिकार नहीं रखता। इसको स्वीकार करने से हिन्दुस्तान का भविष्य धूमिल होना निश्चित है। इस कारण मैं यह पाप-कर्म नहीं कर सकता।

‘‘तिलक जी कहते रहे कि इस समझौते से हिन्दू-मुसलमान दंगे बंद हो जायेंगे; दोनों समुदाय एक मन होकर स्वराज्य प्राप्त करने में लग जायेंगे और स्वराज्य शीघ्र मिलेगा।

‘‘परन्तु मालवीय जी का दृढ़ मत था कि हिन्दू-मुसलमान दंगे सन् १९०६ में, जब भारत-सरकार ने मुसलमानों को पृथक् मताधिकार दिया था, के उपरान्त आरम्भ नहीं हुए। जब मुसलमानों का देश पर निष्कण्टक राज्य था तब भी मन्दिर गिराये जा रहे थे; बलपूर्वक धर्म परिवर्तन हो रहे थे और हिन्दू स्त्रियों के अपहरण भी हो रहे थे। इन दंगो का कारण ये विशेषाधिकार नहीं। इनके मिल जाने पर भी ये दंगे रहेंगे। इनके मिटाने का उपाय है हिन्दू समाज में संगठन, साहस और आत्म-विश्वास भरना। ये कार्य आपके गणेशोत्सव कर रहे हैं। परन्तु जहां इस्लाम के मतदाता होंगे वहां वे अपना यह भी अधिकार मांगेंगे कि वहां मन्दिरों में घंटे न बजें, आरती, भजन न हो। आपके गणेश उत्सव भी ‘बैन’ हो जायेंगे।’’

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