उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘इसी प्रकार यह मेरी पत्नी है, सुन्दर चिकना मुख है, मोटी-मोटी आँखें हैं इत्यादि। परन्तु क्या ये आँखें, यह मुख और ये शरीर के सुन्दर-सुगठित अंग-प्रत्यंग पत्नी है? जी नहीं, पत्नी तो वह शरीर नहीं है। मान लीजिए, कल मैं अन्धी हो जाऊँ तो क्या मुझमें आपसे प्रेम करने वाली वस्तु नहीं रह जाएगी अथवा कम हो जाएगी? नहीं। इसीलिए कवि ने कहा है कि यह सब मिथ्या है। देखिए गीता का श्लोक है -
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
‘‘प्रेम करने वाली वस्तु न तो पैदा होती है न मरती है। यह भी नहीं कि यह एक बात होकर फिर नहीं होगी। यह अजन्मा है, नित्य रहने वाली, शाश्वत है और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह मरती नहीं।’’
‘‘तो क्या आत्मा बार-बार उत्पन्न होता है?’’
‘‘आत्मा उत्पन्न नहीं होता। वह तो अजर है अर्थात् जन्म नहीं लेता। जन्म तो शरीर लेता है। आत्मा शरीर का एक प्रकार त्याग कर देता है जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र उतार देता है और फिर नए वस्त्र धारण कर लेता है।’’
सुदर्शन अभी भी मुसकरा रहा था। उसकी समझ में बात नहीं आई थी। उसने कहा, ‘‘सुमति। यह बात मानने योग्य नहीं। देखो, यह शरीर मुझसे प्रेम करता है अथवा तुम्हारी आत्मा? यदि आत्मा का आत्मा से प्रेम होता है तब तो यह जन्म-जमान्तर तक चलना चाहिए। मैं मर जाऊँगा अथवा तुम मर जाओगी तब तुम कहाँ जाओगी, किसके साथ तुम्हारा विवाह होगा और उससे भी तुम इस लॉन में बैठी हुई कह रही होगी जो मुझसे कह रही हो?’’
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