उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘देखिए, जैसे मनुष्य सुन्दर कपड़े पहनकर कहने लगता है कि वह कितना सुन्दर हो गया है अर्थात् वह स्वयं को कपड़ों से अभिन्न समझने लगता है, इसी प्रकार कभी आत्मा सुन्दर शरीर पाकर स्वयं को सशरीर समझने लगता है। तब वह शरीर के लगाव को आत्मा का लगाव समझ लेता है। वास्तव में वह लगाव तो मिथ्या ही है। ऐसे पति-पत्नी जो शरीर के कारण लगाव को प्रेम समझने लगते हैं, उनका लगाव इस शरीर में ही टूट जाता है। शरीर एक समान सुन्दर नहीं रह सकता। यौवन के पश्चात् प्रौढ़ावस्था और फिर बुढ़ापा आएगा। यदि शरीर के लगाव को प्रेम समझ लिया जाएगा तो वह टूट जाएगा, वह मिट जाएगा, उसके लिए तो मरने तक की भी प्रतीक्षा की आवश्यकता नहीं।’’
‘‘वास्तविक प्रेम आत्मा का है। उसी प्रेम के अनुरूप ही पति पत्नी के लिए; पुत्र माता के लिए अथवा भाई बहन के लिए अपने जीवन तक को न्योछावर कर देता है।’’
‘‘तुम्हारा प्रेम कैसा है?’’
‘‘यह तो आप परीक्षा करके देखिए। मैं क्या बताऊँ?’’
उन दोनों में नित्य इस प्रकार की बातें होती रहती थीं। जहाँ वह वैज्ञानिक; जो आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता था अपनी बात का खण्डन होता देख मन-ही-मन चिढ़ता था, वहाँ वह अपनी बालिकामात्र सुन्दर पत्नी के उद्गार तथा अकाट्य युक्तियाँ सुन प्रसन्न भी होता था।
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