उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
वैज्ञानिक के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण के अतिरिक्त अन्य कुछ भी प्रामाणिक नहीं। कभी-कभी साधु-संत उसको कहा करते थे कि इस संसार में अनेक वस्तुएँ ऐसी हैं जिन्हें हम देख, सुन अथवा स्पर्श नहीं कर सकते। सुदर्शन इस बात को मानता था। उसका विज्ञान मानता था कि बहुत-सी ध्वनियाँ हैं जो मानवीय कानों की श्रवण-शक्ति के बाहर हैं। बहुत-सी प्रकाश-किरणें हैं जो मानवीय नेत्रों की दृष्टि में नहीं आ सकतीं। परन्तु वह यह भी जानता था कि धीरे-धीरे विज्ञान इन सीमातीत ध्वनियों और प्रकाश-किरणों को इन्द्रियगोचर करने में सफल हो रहा है। इससे वह उन शास्त्रों के विद्वानों के मत को कि इससे परमात्मा और आत्मा की सम्भावना का अनुमान लगाया जा सकता है, ठीक नहीं मानता था। परन्तु जब सुमति से बात होती थी तो वह उसको उत्तर नहीं दे पाता था फिर भी वह सुमति के तर्क को स्वीकार नहीं करता था। सुमति कहती, ‘‘आप तो तब तक नहीं मानेंगे जब तक अनुभव से आप इसे प्रत्यक्ष नहीं कर लेते।’’
‘‘हाँ, कोई भी वैज्ञानिक बिना तजुर्बा किए मान नहीं सकता। तजुर्बा का मतलब है कि वैसा ही स्वयं प्रयोगशाला में अथवा फैक्टरी में बनाकर देख ले। तुम कहती हो कि शरीर में आत्मा है, जब तक उसको पकड़कर स्टोर में रख नहीं लेते और फिर आवश्यकता पड़ने पर पुनः शरीर में नहीं डाल सकते, तब तक कोई मूर्ख ही आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास करेगा।’’
इस प्रकार स्वयं को तथा अन्य अनेक आस्तिकों को मूर्ख कहे जाने पर सुमति हँस पड़ी। उसने कहा, ‘‘परन्तु कुछ बातों को तो आपके वैज्ञानिक बिना तजुर्बा किए मान रहे हैं?’’
‘‘बिल्कुल गलत। वैज्ञानिक ऐसी भूल-कभी नहीं कर सकते।’’
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