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उपन्यास >> सुमति

सुमति

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7598

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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।


जब नलिनी ने उसकी इसमें सहायता करनी आरम्भ की तो कृष्णकान्त बोला, ‘‘यह लड़की बहुत सुन्दर थी। मैं उसे देख अपने पर नियन्त्रण नहीं रख सका।’’

‘‘और मज़ा ले लिया न? चाँद पकड़ने का यत्न करने लगे थे। एक बात मेरी समझ में आई है कि आप निरे पशु ही है। मुझे आपके साथ विवाह करने पर खेद होने लगा है।’’

‘‘पर रानी! यह तो साधारण जीवन में अपवाद ही मानना होगा। इतनी सुन्दर लड़की संसार में अन्य कहीं नहीं मिल सकती और मेरा नियन्त्रण भी टूट नहीं सकता।’’

‘‘परन्तु एक बात पर मुझे भी विस्मय हुआ है। इस दुबली-पतली-सी लड़की का हाथ तो लोहे की भाँति कड़ा निकला। चपत मुख पर लगी तो यह अनुभव हुआ कि फ़ौलाद के पंजे की चोट लगी है। मेरा सिर तो उसी समय चक्कर खाने लगा था और फिर उसके दाँत कीलों की भाँति मांस में घुस गए। यदि तुम उस समय न आ जातीं तो वह निस्सन्देह मेरी बाँह का मांस नोचकर चबा जाती।’’

‘‘वह राजपूत की लड़की है और मरने-मारने से डरती नहीं।’’

कृष्णकान्त के गाल पर से उँगलियों के चिह्न मिटाने में अधिक देर लगी। बहुत यत्न करने पर भी गाल की सूजन बिलकुल नहीं गई।

जब पति को विदा कर वह सुदर्शन जी की गाड़ी में घर लौटी तो कात्यायिनी उससे बात करने के लिए व्याकुल हो रही थी। ज्योंही प्रों० सुदर्शन और सुमति विदा हुए कि कात्यायिनी नलिनी के साथ उसके कमरे में जा पहुँची।

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