उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘फिर भी एक बात का मैं तुमको आश्वासन दे सकती हूँ कि मैं तुम्हारे सभ्य, सुशील मामा से तुम्हें वंचित नहीं करूँगी। मेरी अपनी रुचि भी इसी बात में है। मैं विधवा हो पुनः विवाह के झंझट में पड़ना नहीं चाहती।’’
कात्यायिनी को नलिनी की सब बातों में अस्वाभाविक प्रतीत हुई थी। वह यह समझ ही नहीं सकी थी कि एक स्त्री कैसे विवाह के तीसरे ही दिन पति से इतना लड़े की मुक्का-मुक्की हो जाए और फिर कटा-कटी भी कर दे।
परन्तु वह यह भी तो नहीं समझ सकी थी कि कृष्णकान्त ने अपनी पत्नी की संगति प्राप्त करने के उपरान्त किसी अन्य पर भी हाथ उठाया होगा। परन्तु अपनी सरलता में उस मरहम-पट्टी के सामान और कृष्ण के गाल के सूजने का कुछ युक्तियुक्त कारण न समझकर भी चुप रही। बहुत देर तक वह इस पूर्ण बात का अर्थ समझने में लीन रही। फिर एकाएक उठी और बोली, ‘‘तुम पढ़ी-लिखी औरतों की बात मैं समझ नहीं सकती। फिर भी इतना तो मैं जानती हूँ कि विवाहित जीवन का यह आरम्भ शोभनीय नहीं हुआ।’’
‘‘भाभी! तुम ठीक कहती हो। परन्तु इस सबकी तुम उत्तरदायी हो। मैं तो इस पशु की सूरत तक को जानती नहीं थी। अब तुमने उस पशु को मेरे सामने लाकर खड़ा किया है तो उसको सन्मार्ग दिखाने में कुछ ऐसा हो जाना विस्मयकारक नहीं मानना चाहिए।’’
कात्यायिनी असन्तुष्ट और कुछ न समझती हुई अपने कमरे में चली गई।
नलिनी अब पिछले चार दिन की घटनाओं का विश्लेषण करने लगी। वह मन में विचार करती थी कि उसे शीघ्रातिशीघ्र इस पशु पर नियन्त्रण रखने के लिए नागपुर जाना चाहिए। अन्यथा पकी-पकाई रसोई पर यह राख छिड़क देगा और जीवन का सब स्वाद किरकिरा कर देगा।
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