उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
द्वितीय परिच्छेद
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अधिकांश हिन्दू-परिवारों की भाँति ही श्रीपति चन्द्रावरकर का परिवार भी विभिन्न विचारों का एक विचित्र संगमस्थल था। उस परिवार का एक छोर चन्द्रावरकर की विधवा माँ थी, जो अपने साधारण वृत्ति एवं शिक्षा वाले दिवगंत पति की स्मृति में जीवन व्यतीत कर रही थी। अपने जीवन का कार्य वह ईश्वर-भक्ति और अपनी सामर्थ्यानुसार दूसरों की सेवा करना मानती थीं और उसका विश्वास था कि इसी प्रकार जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया जाता है। वर्तमान युग की प्रगतिशीलता की दृष्टि से वह सर्वथा अशिक्षित थी।
परिवार का दूसरा छोर था कात्यायिनी। वह महाराष्ट्र के एक गाँव के निर्धन परिवार की कन्या थी, उसको केवल प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। फिर भी स्त्री-सुलभ कौशल द्वारा वह अपने पति पर शासन करती थी। वह पति की सेवा करती और उसके प्रत्येक प्रकार के सुख-दुख में सहायक थी। वह पति की बात मानती थी और अपनी सेवा के बल पर वह पति से अपनी बात मनवा भी लेती थी।
इसी परिवार का एक किनारा था, प्रोफेसर श्रीपति। वह भी निर्धनता के जीवन में शिक्षा ग्रहण करता रहा और प्राध्यापक बनने पर भी मितव्ययिता से घर का कार्य चलाने लगा। उसका जीवन सादा, सरल और पवित्र था। फिर भी पढ़ने-पढ़ाने के विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों के प्रति उसमें कभी रुचि जाग्रत हुई ही नहीं। इतिहास का विद्यार्थी रहा था और अब उसी विषय का प्राध्यापक भी बन गया था। वह सर्वथा नास्तिक था और इतिहास की नवीन विवेचनाओं का परिपोषक था। इतिहासज्ञों ने यह तर्क विज्ञान-वेत्ताओं से ग्रहण किया था कि मानव वन-मानुष की सन्तान है। इसकी पूर्ण उन्नति विगत दो-ढाई हजार वर्षों में ही हुई है। उसके पूर्व वह प्राकृतिक घटनाओं, विद्युत, वर्षा, भूकम्प, धूप, शीत इत्यादि से भयभीत रहता था और इन शक्तियों के कोप से बचने के लिए इनकी पूजा किया करता था।
वर्तमान युग की उन्नति मनुष्य को प्रकृति के कोप से बचाने में समर्थ हो गई है। ज्यों-ज्यों मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त करता जाता है त्यों-त्यों वह स्वयं को निर्भय अनुभव करता जाता है।
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