उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
|
327 पाठक हैं |
बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
इन विभिन्न विचारों, प्रवृत्तियों और संस्कारों के होते हुए भी वह परिवार एक फेडरल स्टेट की भाँति स्वतन्त्र और परतन्त्र चल रहा था। सब अपने निजी विश्वासों और धारणाओं में स्वतन्त्र और पारिवारिक कार्यों में संयुक्त तथा परस्पर परतन्त्र थे।
कात्यायिनी ने अपने मामा का सम्बन्ध अपनी ननद से करा दिया था। इसमें उसने चतुराई से काम लिया था। वह अपनी नानी के स्वभाव और चरित्र को जानती थी और उसी के स्वभाव और चरित्र के आधार पर वह कृष्णकान्त के स्वभाव एवं चरित्र का अनुमान लगाती थी। कात्यायिनी को कृष्णकान्त के चरित्र का भास दिल्ली में प्रथम रात्रि के व्यवहार से ही हो गया था। उसने अपने परिवार की झूठी प्रशंसा की थी। कात्यायिनी अपने मामा और ननद के पास से उठकर चली गई। उसको मामा की कुटिलता तनिक भी नहीं भाई।
जब उसने देखा कि माँ तो सोने के लिए चली गई है और उसका पति प्रातः उठकर कॉलेज का काम करने के लोभ में चला आया है तो वह दो युवा प्राणियों को रात में अकेले छोड़ने को नापसन्द करती हुई छिपकर उनकी गतिवाधियों का अवलोकन करने का प्रयास करने लगी। दो घण्टे तक वह उनको देखती रही और उनके हाव-भाव में किसी प्रकार की उच्छृङख्लता न देख वह वहीं पर बैठी-बैठी ऊँध गई। जब उसकी आँख खुली तो कमरे की बत्ती बन्द थी किन्तु खड़वे के लिए जो कमरा तैयार किया गया था उसमें प्रकाश हो रहा था। उसने यह देखने के लिए कि वह सो गया है अथवा नहीं, उसके कमरे में झाँका। और वहाँ का दृश्य देखकर वह स्तब्ध रह गई।
अगली रात पुनः वही काम करते देख उसको इतना खेद नहीं हुआ, जितना पहली बार हुआ था। कारण यह कि अब विवाह का निश्चय हो गया था। फिर भी विवाह के उपरान्त उसने खड़वे की भर्त्सना कर ही दी।
|