उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
इस प्रकार नलिनी अपने पति के लॉज में गई। कृष्णकान्त की तीन पोशाकें तथा एक स्लीपर, इन चार वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य कुछ भी वहाँ से लाने योग्य नहीं था। उसका विस्तरा अत्यन्त मैला और फटी हुई स्थिति में था। उसे वह वहीं किसी भंगी आदि को देने वाली थी कि लॉज का ही एक निवासी आकर कहने लगा,’’ इस सामान को आप अपने नये मकान में ले जा रही है क्या?’’
‘‘नहीं।’
‘‘तो बेच डालिये।’’
‘‘आप लेंगे?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘बोलिए क्या देंगे?’’
‘‘दस रुपए।’’
एक क्षण तक विचार कर नलिनी ने कहा, ‘‘लाइए।’’
उसने जेब से दस का नोट निकाल नलिनी को दे सामान वहाँ से उठा लिया। इस प्रकार रद्दी बेचकर अपने पति के कपड़े उठा रिक्शा में बैठ कृष्णकान्त के साथ वह अपने भाई के होटल में जा पहुँची।
श्रीपति की सूरत देख नलिनी समझ गई कि भैया रोता रहा है। उसको सान्त्वना देने के लिए नलिनी ने कहा, ‘‘भैया! मैं यहाँ की दशा सुधारने में लग गई हूँ, देखिए क्या कर पाती हूँ।’’ फिर उसने कहा, ‘‘अब मैं इस समय अपना ट्रंक लेने के लिए आई हूँ। आपसे मिलने के लिए कल आऊँगी। अब आपका क्या कार्यक्रम है?’’
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