उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
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श्रीपति और कात्यायिनी अगले दिन दिल्ली के लिए लौट गए। नलिनी और कृष्णकान्त उनको विदा करने के लिए स्टेशन पर गए थे। कात्यायिनी ने कृष्णकान्त को फिर समझाया। उसने कहा, ‘‘यह अन्तिम अवसर है, यदि अब भी तुम नहीं समझे तो फिर विवाह-विच्छेद होगा। हमें सरकार का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने इस प्रकार का कानून बना दिया है।’’
‘‘परन्तु बहन! सरकार ने यह भी तो कानून बनाया है कि लड़की भी पिता की सम्पत्ति की भागीदार होती है?’’
‘‘बनाया तो है। किन्तु नलिनी के पिता कुछ भी सम्पत्ति छोड़कर नहीं गए। उनके देहान्त के बाद नलिनी की पढ़ाई पर उसके भाई ने ही सब व्यय किया है। यह तो नलिनी की अपनी कमाई है जिसके भरोसे वह तुम्हें पुनः अपने पाँव पर खड़ा करने का यत्न कर रही है।’’
‘‘इसीलिए मेरा कहना है कि इस अन्तिम अवसर को, जो तुम्हें इस विवाहित जीवन से प्राप्त हो रहा है, अपनी मूर्खता से गँवा दिया तो फिर तुम कहीं के नहीं रहोगे।’’
‘‘मैं तो अपने विचार से ठीक ही कर रहा था पर क्या करूँ भाग्य ने ही मेरा साथ नहीं दिया।’’
‘‘सोच लो। यदि नलिनी की योजनानुसार कार्य किया तो तुम्हें पुनः मान-प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है।’’
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