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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘नहीं, मैंने यह नहीं कहा। माला! मैं तो यह कह रहा हूँ कि मैं फोकट में तुम्हारे साथ बँध गया हूँ। अब फोकट में बँधना ठीक नहीं, यही कहा है न तुमने?’’

‘‘फोकट में क्यों? पिताजी ने तीस हज़ार रुपया विवाह पर खर्च किया था। फोकट में कैसे हुआ? ग्यारह हज़ार का तो चैक ही दिया था।’’

‘‘वह तो मोटर खरीदने के लिए दिया था। जिस दिन रानी जी कहेंगी, खरीद दूँगा।’’

‘‘तो आपको वह नहीं चाहिए?’’

‘‘नहीं।’’    

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरे पास मोटर रखने की सामर्थ्य नहीं। कल वेतन मिला था। पाँच सौ में अच्छी रुपए मकान का भाड़ा, पचास रुपए प्रॉविडेंट फंड, बीस रुपए, टैक्स के कटकर मिला साढ़े तीन सौ। उसमें से डेढ़ सौ पिताजी के दे आया हूँ। शेष बचे दो सौ। सौ रुपया खाने-पीने के लिए और सौ रुपए में नौकर, धोबी, नाई, भंगी और मैं तथा तुम। बताओ शेष क्या बचा जो मोटर का पैट्रोल, ड्राइवर और टूट-फूट के लिए चाहिए। रानी जी! मैं अभी मोटर नहीं खरीद सकता।’’

‘‘यह डॉक्टर खोसला कैसे रखे हुए हैं?’’

‘‘एक तो इनता वेतन सात सौ है। दूसरे इन्हें पिता को कुछ नहीं देना पड़ता। वे घर के ज़मींदार हैं। उनकी तो यह बात है कि घी, गेहूँ, चावल, आलू गाँव से चला आता है। एक बात और भी है। उनकी ‘प्राइवेट प्रैक्टिस’ भी है जो मेरी अभी नहीं है।’’

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