उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मिसेज़ खोसला खाने लगीं तो उसने मुझको बुला लिया। मैं अपना भोजन वहाँ वे गई। हम दोनों ने साथ खाया है।’’
‘‘डॉक्टर नहीं थे वहाँ?’’
‘‘वे दो दिन के लिए अपने गाँव गए हैं।’’
‘‘सुख से गए हैं न?’’
‘‘उनकी माँ बीमार थीं। तार आते ही वे चले गए थे।’’
‘‘तो सीताराम से कह दो मैं नहीं खाऊँगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘माँ ने खिला दिया है।’’
‘‘तो अगर रुक्मिणी न बुलाती तो मैं फोकट में भूखी रहती?’’
‘‘हाँ, तुम फोकट में ही भूखी रहतीं। भविष्य में फोकट में भूखे नहीं रहना। वक्त पर खा लेना।’’
भगवानदास को फिर क्रोध चढ़ रहा था। उसने आगे कहा, ‘‘मैं भी चार बजे आया था और तुम घर पर नहीं थीं तो विचार आया कि अकेले चाय कैसे पिऊँगा? मैंने चाय नहीं पी और फोकट में ही बिना चाय के रह गया। अब यह फोकट में ही चाय के बिना नहीं रहना चाहिए। ठीक है न?’’
‘‘तो आपका मतलब है कि मैं आपके साथ बँध गई हूँ?’’
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