उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘कुछ नहीं। उनके साथ कोई बात नहीं थी। बात तो मेरी थी। मैं मिलने गया था।’’
‘‘यही तो पूछ रही हूँ कि किसलिए मिलने गए थे।’’
‘‘तुम भी तो आज दोपहर माँ से मिलने गई थीं न? भला किसलिए गई थीं?’’
‘‘मैं तो सिनेमा देखने गई थी।’’
‘‘ओह! अकेली?’’
‘‘नहीं; माँ और जानकी आई थीं और मुझको ले गई थीं।’’
‘‘मैं सिनेमा देखने से कोई घटिया काम करने नहीं गया था।’’
‘‘वाह! भला दोनों में क्या सम्बन्ध है?’’
‘‘अपने-अपने मन की बात है। मैं चार बजे आया था। तुम थीं नहीं। सीताराम ने बताया कि माँ आई थीं और तुम उनके साथ गई हो। मैंने विचार किया कि मैं भी अपनी माँ से मिलने चला जाऊँ।’’
‘‘अच्छा, सीताराम ने खाना बनाया है। वह रखा है। जाइए खा लीजिए। वह गरम कर देगा।’’
‘‘और तुम क्या करोगी? तुम नहीं खाओगी?’’
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