उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तो आप भी प्रैक्टिस के लिए कोशिश करिए।’’
‘‘करूँगा। घर पर तो बोर्ड लगा है। कॉलेज के समय के पश्चात् वहाँ दो घंटे बैठने लगूँगा।’’
‘‘वहाँ क्यों, यहाँ क्यों नहीं?’’
‘‘यह अपने पिताजी से पूछना कि वह अपनी दुकान अनारकली बाजार में क्यों करते हैं, नूरगली में क्यों नहीं करते?’’
‘‘वे तो जहाँ रहते हैं, वहीं ही दुकान करने लगे थे।’’
‘‘नहीं, रानी! जहाँ दुकान चली है, वहीं रहने लगे हैं।’’
‘‘परन्तु, अब तो मकान दूर बनावा लिया है और वहाँ जाने वाले हैं।’’
‘‘यही तो कह रहा हूँ। उनसे पूछना कि अब दुकान को भी वहीं उठाकर ले जाएँगे क्या?’’
‘‘मुझको तो आपकी बात समझ में नहीं आ रही।’’
‘‘तो समझ लो। काम-धन्धा एक बात है, रहना दूसरी बात है। रहते हैं घरवाली के आराम के लिए, और काम करते हैं काम की सुविधा के लिए।’’
‘‘मैं तो यही कहूँगी कि काम यहाँ ही करिए। जब दूसरे डॉक्टरों की चलती है तो आपकी भी चलेगी।’’
‘‘अच्छा, विचार करूँगा।’’
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