उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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रात लोकनाथ सोने लगा तो उसके अपने पलंग पर दस-दस के नोटों की एक थई पड़ी मिली। उसने रामदेई को बुलाया और पूछ लिया, ‘‘ये तुमने रखे हैं यहाँ?’’
‘‘नहीं तो। कदाचित् महिनी के हों।’’ उसने मोहिनी को आवाज़ दे दी।
मोहिनी आई तो माँ ने रुपयों को दिखाते हुए पूछ लिया, ‘‘ये तुम्हारे पड़े हैं यहाँ?’’
मोहिनी एक क्षण तक विचार कर बोली, ‘‘अवश्य भैया रख गए हैं। वे भोजन पर बैठने से पहले इस कमरे में खड़े थे।’’
लोकनाथ हँस पड़ा। और हँसकर बोला, ‘‘तो कल यह उसको वापस करने जाना होगा?’’
‘‘क्यों?’’ मोहिनी का प्रश्न था।
‘‘उसका अपना खर्च शेष में नहीं चल सकेगा। मुझको कुछ ज़रूरत भी नहीं। हमारे पास अपना मकान है। न नौकर रखा हुआ है, न अभी टैक्स लगता है। कोठी और मकान के खर्चों में बहुत अन्तर है।’’
रामदेई चुप रही।
अगले दिन ठीक चार बजे भगवानदास चाय पीने आया। माला घर पर ही थी। चाय तैयार थी। उसने चाय पी तो बोला, ‘‘मैं घर जा रहा हूँ।’’
‘‘घर! कहाँ है घर आपका?’’ माला ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर पूछा।
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