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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘देखो माला! यह कोठी है और घर शहर में है।’’

‘‘वहाँ क्या है?’’

‘‘मैंने कहा था न कि प्रैक्टिस का प्रबन्ध करूँगा। अब तुम्हारे सुझाव को मैंने स्वीकार कर लिया है। प्रातः आठ से नौ बजे तक यहाँ चिकित्सा-कार्य करूँगा और सायंकाल पाँच से सात तक वहाँ बैठा करूँगा। दोनों स्थानों में जहाँ चल निकलेगी, वहाँ का काम रहने दूँगा, दूसरे स्थान पर बन्द कर दूँगा।’’

‘‘आपकी यहाँ चल निकलेगी।’’

‘‘तो वहाँ बन्द कर दूँगा। अभी दोनों स्थानों पर काम करूँगा।’’

‘‘और हमारा घूमना-फिरना?’’

‘‘वह रविवार के दिन होगा। उस दिन कॉलेज बन्द होगा और चिकित्सा-कार्य भी बन्द रहा करेगा!’’

‘‘यह तो नौकरी हो गई?’’

‘‘नौकर तो मैं हूँ ही। दुकानदार नहीं हूँ जो रविवार को भी दुकान के साथ बँधा रहूँगा।’’

माला को कोई उत्तर नहीं सूझा।

भगवानदास ने कहा, ‘‘चलो तुमको भी माताजी से मिला लाऊँ?’’

‘‘व्यर्थ है।’’

भगवानदास ने साइकल पकड़ी और चल दिया।

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