उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
वह अभी गया ही था कि लोकनाथ आ गया। उसने दरवाज़े के बाहर लगी घंटी का बटन दबाया तो माला ने दरवाजा खोल दिया। वह वस्त्र पहन, बाहर घूमने जा रही थी। अपने श्वसुर को सामने खड़े देख, अवाक् रह गई।
‘‘माला बेटी! नमस्ते।’’ लोकनाथ ने कहा।
विवश माला को हाथ जोड़ने पड़े।
लोकनाथ ने पूछ लिया, ‘‘भगवान घर पर है?’’
‘‘वह तो आपकी तरफ गए हैं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वे, वहीं उस पर में प्रैक्टिस जमाना चाहते हैं।’’
‘‘यह तो बहुत ठीक करेगा। हम सब उसकी सहायता कर देंगे।’’
माला चुप रही। लोकनाथ ने उसको सुर्खी, पाउडर लगाए देखा तो पूछ लिया, ‘‘कहीं जा रही थीं क्या?’’
‘‘हाँ! यह पड़ोस में मिसेज़ खोसला हैं। उनके साथ ज़रा लॉरेंस गार्डन तक जाने का विचार है।’’
‘‘अच्छा जाओ। यह एक लिफाफ़ा भगवानदास के नाम का है। वह आए तो उसको दे देना।’’ इतना कह और लिफाफा दे, लोकनाथ खड़ा-खड़ा ही लौट गया।
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