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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


घर पर पहुँचकर, लोकनाथ ने भगवानदास को नहीं बताया कि वह उसकी कोठी पर गया था। वह चुप रहा। जब यह निश्चय हो गया कि भगवानदास वहाँ प्रैक्टिस करेगा, तो नीचे की बैठक में मेज़, कुर्सी लगा दी गईं। एक बगल का कमरा निरीक्षणगृह बन गया। उस दिन उसने वहाँ के लिए ‘स्टेशनरी’ छपने के लिए दे दी।

रात को पुनः भोजन करके ही वह कोठी को लौटा।

सोने के समय रामदेई ने अपने पति से पूछा, ‘‘तो रुपए लौटा दिए हैं?’’

‘‘मैं वहाँ कोठी पर गया था। उस समय भगवान यहाँ आ चुका था। इसलिए रुपए एक लिफाफ़े में बन्द किए हुए माला को दे आया हूँ।’’

‘‘यह आपने ठीक नहीं किया?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘रुपये भगवानदास के हाथ में देने चाहिए थे?’’

‘‘तो क्या वह उसको रुपए देगी नहीं?’’

‘‘वह अच्छी औरत नहीं है।’’

‘‘तो यह उसकी परीक्षा हो जाएगी। मैंने तो यह विचार किया था कि भगवानदास बिना बताए रुपए रख गया है और मैं बिना बताए उसकी मेज़ पर रख आऊँगा। जब वह नहीं मिला और माला दरवाज़े में खड़ी-खड़ी ही बातें करती रही और मुझको भीतर चलकर बैठने के लिए कहा भी नहीं तो विवश वहाँ खड़े-खड़े ही रुपयों का बन्द लिफाफ़ा उसको देकर लौट आया हूँ।’’

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