उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘उसने आपको चाय-पानी को भी नहीं पूछा?’’
‘‘मैं चाय पीने नहीं गया था। वह पूछती भी तो कदाचित् पीता नहीं।’’
‘‘यह आपके पीने न पीने की बात नहीं है। मैं तो उसके पूछने की बात जानना चाहती हूँ। मैं समझती हूँ कि हमको वहाँ जाना ही नहीं चाहिए।’’
‘‘मेरा यह विचार नहीं है। उसको शिष्टाचार सिखाने के लिए हममें से किसी-न-किसी को नित्य वहाँ जाना चाहिए।’’
‘‘मैं तो जाने का साहस नहीं कर सकती। जब आपका इतना अनादर कर दिया तो मुझको वह धक्के देकर घर से निकाल सकती है।’’
‘‘निकाल देगी तो उसको समझाना पड़ेगा।’’
‘‘वह अब दूध पीती बच्ची नहीं है।’’
‘‘रामदेई! यह बहुत ही आवश्यक कार्य है। लड़के के जीवन-भर के सुख-दुःख का प्रश्न है। अपने झूठे मान-अपमान का विचार कर मैं उसका जीवन बर्बाद नहीं होते देख सकता। हाँ, तनिक सावधानी से कार्य करना पड़ेगा।’’
रामदेई ने अपने पति से कभी बहस नहीं की थी। उसको बहस करने की कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ी थी। उसके अपने विषय में कभी किसी बात पर आपत्ति ही नहीं की जाती थी।
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