उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
आज तो लड़के के विषय में बात हो रही थी। उसके सुख-दुःख के विषय पर मतभेद हो गया था। वह अपने पति को अपने से अधिक समझदार और बुद्धिमान मानती थी, इस कारण चुप रही। यद्यपि उसके मन में एक प्रकार के अज्ञात भय का साया-सा विराजमान था।
कई दिन व्यतीत हो गए और भगवानदास ने उन रुपयों की बात नहीं की। अब साधारण कष्टों के विषय में इक्का-दुक्का रोगी भगवानदास से परामर्श करने आने लगे थे। वह ओषधि लिख देता था और रोगियों को किसी दवाईखाने से दवाई बनवानी पड़ती थी। इससे उसको अभी लाभ तो कुछ नहीं हो रहा था, परन्तु काम जम रहा प्रतीत होने लगा था।
भगवानदास का कार्यक्रम यह हो गया था कि वह प्रातः चार बजे उठता था। पाँच बजे स्नानादि से निवृत्त हो अपने कॉलेज की पढ़ाई करने लगता था। सात बजे वह कोठी की बैठ में आ जाता। वहाँ भी बैठा-बैठा स्वाध्याय जारी रखता। अभी वहाँ परामर्श के लिए कोई नहीं आता था। साढ़े नौ बजे उठ, वह भोजन करता था और दस बजे कॉलेज जा पहुँचता था। ग्यारह बजे से उसका पढ़ाई का कार्य आरम्भ होता था। सप्ताह में बारह पीरियड पढ़ाई के और छः पीरियड क्रियात्मक कार्य के होते थे। दो बजे वह कॉलेज के कार्य से अवकाश प्राप्त कर कॉलेज में ही चाय पी, पुस्तकालय में जा बैठता। चार बजे तक वहाँ लिखना-पढ़ना अथवा साथियों से गप्पें हाँकना होता था। सवा चार बजे वह घर जा पहुँचता था। वहाँ पत्नी के साथ बैठकर चाय पीता था। पौने पाँच बजे वहाँ से चलकर वह पाँच बजे अपने पिता के मकान पर पहुँच जाता। वहाँ सात बजे तक बैठ, कोठी को लौट आता। कभी भोजन माँ के घर खा लेता, कभी कोठी में लौटकर खा लेता। यह निश्चय हो गया था कि यदि वह आठ बजे तक आ गया तो भोजन कोठी में करेगा। अन्यथा माला सवा आठ बजे खाना खाने बैठ जाती थी।
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