उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
अगले मास पुनः रुपए की वही बात हुई। भगवानदास अपने पिता के पलंग पर रख गया और लोकनाथ रुपयों को लिफाफ़े में बन्द कर भगवानदास की कोठी पर लौटाने चला गया। भगवानदास उस दिन भी शहर वाले मकान पर जा चुका था। इस दिन लोकनाथ बैठक में जा बैठा था। माला ने लिफ़ाफ़ा लिया और पति की मेज़ पर रख दिया। आज भी उसने न तो अपने श्वसुर को बैठने को कहा, न ही चाय-पानी के लिए पूछा। लोकनाथ लौट आया। जहाँ उसको माला के व्यवहार पर विस्मय हुआ, वहाँ भगवानदास के रुपयों के विषय में मौन रहने पर आश्चर्य भी हुआ। रामदेई ने पूछा, ‘‘आप रुपए लौटाने गए थे?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘भगवानदास मिला था?’’
‘‘नहीं! आज मुझे दफ्तर से निकलते कुछ देरी भी हो गई थी।’’
‘‘आज भी द्वार पर ही स्वागत हुआ था?’’
‘‘नहीं! आज बैठक खुली थी। वहाँ नौकर खड़ा था। मैं गया तो उसने मुझको बैठ जाने को कहा और मालकिन को सूचना देने चला गया। वह आई तो मैंने उठकर नमस्ते की। उसने भी नमस्ते की और प्रश्न-भरी दृष्टि में मेरे मुख पर देखती रही। मैंने लिफ़ाफ़ा उसके हाथ में दिया तो उसने भगवान की मेज़ पर मेरे सामने ही रख दिया। मैं चला आया। उसने कुछ कहा भी नहीं।’’
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