उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
8
एक दिन मोहिनी वहाँ गई। उस समय माला की माँ वहाँ पहुँची हुई थी और माला अपनी माँ के साथ कहीं जाने की तैयारी कर रही थी। मोहिनी ने छूटते ही कहा, ‘‘भाभी! आज तो मध्याह्न का भोजन नहीं किया। कुछ घर पर खाने-पीने को है अथवा नहीं?’’
‘‘मुझको तो माँ एक होटल में खिलाने ले चली हैं। घर पर खाना बनाया ही नहीं।’’
‘‘तो मौसीजी! मुझको भी निमन्त्रण दे दीजिए।’’
‘‘देख लो, मोहिनी! तुम्हारे माता-पिता इस बात को पसन्द करेंगे अथवा नहीं। फिर तुम्हारे ससुराल वालों की बात भी विचारणीय है। तुमको होटलों में खाने की लत लग गई, तो कष्ट होगा। तुम्हारी ससुराल वाले तुमको होटलों में खिला नहीं सकेंगे।’’
‘‘मौसी! नहीं खिलाना हो तो ऐसे ही कह दो। यह घर वालों की सामर्थ्य की बात रहने दो।’’
विवश, मायारानी को मोहिनी को भी साथ ले जाना पड़ा। रामकृष्ण की पत्नी दयारानी और रामकृष्ण वहाँ पहले से ही उपस्थित थे। कुछ समय बाद जानकी और जानकी का घर वाला भी आ गए। यह तो मोहिनी को वहाँ होटल में जाकर ही पता चला की दयारानी का वह जन्म-दिवस था और उस दिन की दावत उसके उपलक्ष्य में थी। जब मोहिनी को यह बताया गया तो उसने दयारानी को बधाई दे दी।
तीन बजे वे लौट आए। मायारानी जब माला और मोहिनी को भगवानदास की कोठी पर छोड़कर चली गई तो मोहिनी ने कहा, ‘‘भाभी! तुम वहाँ माताजी से कभी मिलने नहीं आतीं? कुछ नाराज़ हो हमसे?’’
|