उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘इसमें नाराज़गी की कोई बात नहीं। वे मुझसे मिलने नहीं आईं मैं उनसे मिलने नहीं गई।’’
‘‘पर, पिताजी तो तुमसे मिलने आते रहे हैं। आज तो मैं भी आई हूँ। अब तो आओगी?’’
‘‘तुम्हारे घर आ सकती हूँ। माँजी से मिलने तो तब जाऊँगी, जब माँ जी मिलने आएँगी।’’
‘‘और पिताजी से मिलने भी नहीं आओगी? वह तो सुना है कई बार मिलने आ चुके हैं?’’
‘‘वे तो अपने किसी मतलब से आते हैं। जब मुझको उनसे कोई मतलब होगा तो मैं आ जाऊँगी।’’
‘‘क्या मतलब होता है, उनका?’’
‘‘यह तो वे ही बताएँगे। मैं किसी के मन की बात कैसे जान सकती हूँ? इतना निश्चित है कि बिना मतलब के कोई कुछ नहीं करता।’’
‘‘मतलब तो तुमसे मिलना और सुख-समाचार जानना ही होगा।’’
‘‘हो सकता है। हाँ, सुख-समाचार उन्होंने कभी पूछा नहीं।’’
‘‘तुमने उनको कभी बैठने को भी तो नहीं कहा। उनको कभी चाय-पानी को नहीं पूछा। इससे वे तुमको चलती-फिरती, हँसती-खेलती देख, संतोष अनुभव कर, चले जाते हैं।’’
|