उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मैं घर में अकेली होती हूँ। इससे उनको कुछ कह नहीं सकती। मुझको भय लग जाता है।’’
‘‘पर भाभी! मुझसे तो भय नहीं लग रहा? तुम तो मुझको भी टालना चाहती थीं। मेरा दो मिनट खड़े-खड़े मिलने से चित्त नहीं भरा तो तुम्हारे साथ होटल की यात्रा करने चल पड़ी थी।’’
‘‘बात यह थी कि निमन्त्रण देने वाली माताजी थीं। इस कारण मैं कुछ कह न सकी।’’
मोहिनी यही समझी कि या तो माला बहुत चतुर है और तुरन्त बात बना लेती है अथवा सत्य ही उसका व्यवहार उचित है।
भगवानदास कॉलेज से आया तो मोहिनी को देख बहुत प्रसन्न हुआ। उसने पूछ लिया, ‘‘मोहिनी, यहाँ आने का सुझाव तुमको किसने दिया है?’’
‘‘भैया! जब भाभी कभी मिलने नहीं आईं तो मन ने कहा, चलो मोहिनी! तुम ही चलो। भाभी नहीं आती तो भाभी की भक्तिन ही उसकी सेवा में पहुँच जाए।’’
‘‘भैया! भाभी ने अपने मन्दिर में आने का अपनी भक्तिन को प्रसाद भी दिया है।’’
‘‘क्या दिया है?’’
‘‘भाभी की माँ यहाँ आई हुई थीं। वे भाभी के साथ मुझको भी लंच खिलाने सैसिल होटल ले गईं। आज दया भाभी का जन्म-दिन था।’’
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