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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...

तृतीय परिच्छेद

1

मोहिनी का चित्त माला से मिलकर प्रसन्न नहीं हुआ। न ही रुपयों की बात सुलझी।

दो महीने और बीत गए। लोकनाथ प्रति माह भगवान वाले रुपए माला को देता रहा। अब तो वह जान-बूझकर ऐसे समय जाता था, जब भगवानदास वहाँ नहीं होता था। वह चाहता था कि माला यह समझे कि यह उसको ही ससुराल से भेंट मिल रही है। चार बार रुपए देने के बाद यह उचित समझा गया कि भगवानदास को संकेत तो मिलना ही चाहिए।

आखिर एक दिन नूरुद्दीन रात को भगवानदास के साथ उसकी कोठी की ओर चल पड़ा। नूरुद्दीन की बीवी करीमा से रामदेई ने अपने मन का सन्देह बताया तो उसने अपने पति नूरुद्दीन से बात की। नूरुद्दीन को माला के भाई रामकृष्ण ने माला का लांछन कि लोकनाथ अपनी पुत्रवधू पर बुरी दृष्टि रखता है, बताया था। इससे नूरुद्दीन के मन में भय समा गया कि दाल में कुछ काला भी हो सकता है। अगले ही दिन उसने भगवानदास के पिता से कह दिया, ‘‘बाबूजी! आपको रुपए तो भगवानदास को वापस करने चाहिए थे।’’

लोकनाथ ने कहा, ‘‘बात यह है कि भगवानदास चुपचाप मेरे पलंग पर प्रति मास डेढ़ सौ रुपए के नोट रख जाता है और मैं चुपचाप उसकी पत्नी को वह रुपया लौटाने चला जाया करता हूँ।’’

‘‘परन्तु, आप वह रुपया भगवानदास को लौटा रहे हैं या उसकी बीवी को खर्चे के तौर पर दे रहे हैं?’’

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