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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘मैं पहले तो भगवानदास को ही लौटाने जाया करता था। मगर उसकी पत्नी ने भगवानदास को यह बताया मालूम नहीं होता। इस पर भी मैं चुप हूँ। मैं विचार करता हूँ कि मेरे लिए भगवानदास और उसकी बीवी में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए।’’

‘‘यह ठीक नहीं। आप जो कुछ भगवानदास की बीवी को नज़र करना चाहते हैं, वह भगवानदास की मार्फत ही करना चाहिए।’’

इससे तो लोकनाथ को यह सन्देह हुआ कि भगवानदास को उसके वहाँ जाने का ज्ञान है और वह उसको पसन्द नहीं करता। इससे उसने पूछ लिया, ‘‘तो क्या भगवानदास ने इस विषय में तुमसे कुछ कहा है?’’

‘‘भगवानदास ने तो कुछ नहीं कहा। हाँ रामकृष्ण ने मुझसे कुछ कहा था। उसकी रोशनी में, मैं अपने मन से आपको कह रहा हूँ।’’

‘‘रामकृष्ण ने क्या कहा था?’’

‘‘यह तब की बात है जब भगवानदास आपसे पृथक् नहीं हुआ था। भाभी माला रूठकर अपनी माँ के घर गई हुई थीं। तब रामकृष्ण ने कुछ ऐसा कहा था जिसका इलाज मैंने यही समझा कि भगवानदास अपनी पत्नी को लेकर पृथक् रहने लगे। मैंने आपसे कहा और आपने उसको पृथक् कर दिया।’’

‘‘तो उसके साथी प्रोफेसर घोष ने कुछ नहीं कहा था?’’

‘‘उसने तो यह कहा था कि शहर से बाहर जाकर रहना तो लाभ के स्थान पर खर्च ज्यादा करने वाला होगा।’’

‘‘जब माला आपको बदनाम करने पर तैयार हो गई तो मैंने यही मुनासिब समझा की भगवानदास अपनी पत्नी को लेकर मकान छोड़ जाए।’’

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