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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


अब तो सब बात लोकनाथ के मन में स्पष्ट हो गई। उसको अपनी पत्नी का बार-बार कहना कि माला से मिलने नहीं जाना चाहिए, समझ में आने लगा। इससे वह गम्भीर हो गया। बहुत विचारोपरान्त लोकनाथ ने कहा, ‘‘नूरुद्दीन! तुम क्या समझते हो कि हमको इन पति-पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिए?

‘‘नहीं, मैं तो समझता हूँ कि इनको सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। मगर जिस ढंग से आप चल रहे हैं, इससे तो आप किसी किस्म का सुधार करने के लायक रह ही नहीं जाएँगे। यह औरत आपको बदनाम कर देगी और भगवानदास और उसकी बीवी पर आपके कहने का कुछ भी असर नहीं रह जाएगा। वह ऐसे ही आपसे दूर हो जाएगा जैसे पेड़ से टूटा हुआ फल नीचे नाली में जा गिरता है।’’

‘‘आप इसमें चुप रहिए। मैं और करीमा इस मुआमले में कोशिश करेंगे। मेरी राय मानिए, आप रुपए देने वहाँ मत जाइए। वहाँ जाना हो तो भगवानदास की उपस्थिति में ही जाना चाहिए।’’

‘‘तुम भगवानदास को समझा दो कि मुझको रुपयों की ज़रूरत नहीं। उसको मेरी आर्थिक अवस्था समझा देना। उसको बता देना कि मुझको अभी पिछले महीने ही तुमने अपनी कम्पनी के लाभ में से मेरे हिस्से को कितना रुपया दिया है।’’

‘‘परन्तु लालाजी! मैं उसको इस बात से मना नहीं कर सकता कि पुत्र पिता को कुछ नज़र न करे। श्वसुर पुत्रवधू को नज़र देता है, माँ लड़की को देती है और भाई बहन को देता है, इन बातों में दख़ल देना मैं बिल्कुल ग़लत समझता हूँ। मैंने सिर्फ़ यह कहा है कि जो कुछ भी कोई मुहब्बत के नाम पर किसी को देता है, यह उसके अपने सोचने और समझने की बात है। सिर्फ उस मुहब्बत का ग़लत मतलब न निकले, यह ख्याल रखने की बात है।’’

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