उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘इस बातचीत का परिणाम यह हुआ कि उस दिन नूरुद्दीन भगवानदास के साथ चल पड़ा। भगवानदास अपने हाथ में बाईसिकल लिए चल रहा था और नूरुद्दीन पैदल था। इस कारण भगवानदास भी पैदल ही था। नूरुद्दीन ने कहा, ‘‘भगवान भैया! अब तो तुमसे रोगी राय लेने आने लगे हैं और तुमसे मेल-जोल का वक्त ही नहीं मिलता। मैंने यह समझा कि रास्ता चलते-चलते ही कुछ बातचीत कर लिया करें।’’
‘‘तुम सब लोगों ने मेरी मशहूरी करने में ज़ोर लगाया है तो काम चलेगा ही। अब तो एक-आध कनसल्टिंग फ़ीस भी आने लगी है।’’
‘‘हाँ, मैं देख रहा हूँ। भापा, मैं तो सोचता हूँ कि वह वक्त करीब है जब भगवान भापा को नूरे से बात करने की भी फुरसत नहीं रहेगी। मेरा चित्त इससे बहुत प्रसन्न है। ‘बाई दि वे’’’, नूरुद्दीन ने बात बदल दी, ‘‘इस साल का हमारी कम्पनी का हिसाब-किताब करीमा ने तैयार किया है। नकद दो लाख रुपये का लाभ हुआ है। इसमें बाबूजी का हिस्सा पचीस हज़ार से ऊपर का बना है।’’
‘‘बहुत कमाया है, भैया!’’
‘‘हाँ, इसमें कुछ तो आपके पिता की मेहरबानी का फल है और कुछ हमारी मेहनत और ईमानदारी का। बकाया किस्मत की बात है। अब्बाजान बता रहे थे कि जब मैं और तुम आठवीं जमात में पढ़ते थे, तब अब्बाजान का हाथ बहुत तंग था। अम्मी ने उनको कहा, ‘‘मियाँ, बच्चे तो पैदा करते जाते हो, कुछ आमदनी भी बढ़ाने की कोशिश करो। नहीं तो, भूखों मरने लगेंगे।’’
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