उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘इस पर वालिद साहिब ने अम्मी को कह दिया, ‘‘दिन-भर मेहनत से काम करता हूँ। फिर भी ढाई रुपए से ज्यादा मिलते नहीं और उसमें भी महीने में पाँच-छः दिन खाली रह जाता हूँ। मुझको कुछ सूझ नहीं रहा कि कैसे आमदनी बढ़े।’’
‘‘अम्मी का कहना था, अपनी समझ में नहीं आता तो किसी दूसरे से राय कर लो। लालाजी तुम्हारे बहुत गहरे दोस्त हैं। उनसे ही पूछो कि आमदनी कैसे बढ़ायी जा सकती है?’’
‘‘तब अब्बाजान ने बाबूजी से बात की। उन्होंने अपने एक वाकिफ़ ठेकेदार से मेरे वालिद साहब के लिए कोई काम पूछा। वे एक बहुत बड़ी इमारत बनवाने वाले थे। उसमें खुदाई का काम था। उन्होंने वालिद साहब को कुछ मज़दूर लेकर काम पर आ जाने को कहा। वालिद साहब दस मज़दूर लेकर वहाँ जा पहुँचे। खुदाई होने लगी। दिन-भर के काम की पैमाइश कराई गई और मज़दूरों की मज़दूरी देकर वालिद साहब को तीन रुपए बच गए। अगले दिन वालिद बीस मज़दूर लेकर वहाँ जा पहुँचे। उस दिन पाँच रुपए बचे। इसी तरह रोज होने लगा। कुछ दिन के बाद ठेकेदार ने वालिद साहब से पूछा, ‘‘कुछ रुपया लगा सकते हो?’’
‘‘वालिद ने पूछ लिया, ‘कितना?’’
‘‘उसने कहा, ‘‘चाहिए तो चार-पाँच सौ के बीच। इसके अलावा सौ-दो-सौ हमेशा जेब में रहें तो ठीक रहता है।’’
‘‘वालिद साहब ने लालाजी से जिकर किया तो उन्होंने एक हज़ार रुपया दे दिया। बस काम चल निकला। दो साल में ही वालिद ठेकेदार बन गए। जिस दिन से हमने बाबूजी को पत्तीदार बनाया है, उस दिन से एक तो बड़े-बड़े ठेके मिलने लगे और दूसरे काम में बरकत पड़ने लगी है।’’
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