उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘भापा! करीमा हिसाब रखती है और ऐसे ढंग से समझाती है कि हम कभी नुक्सान उठा सकते ही नहीं। हम परिवार के लोग काम करते हैं और बाबूजी आशीर्वाद तथा काम की राय देते हैं। कम्पनी के खजाने में रुपया बरसता है।’’
‘‘नूरुद्दीन!’’ भगवानदास ने कहा, ‘‘मुझको तुम्हारी तरक्की की खबर सुन बहुत खुशी हुई है।’’
‘‘और तुम्हारी क्या हालत है?’’
‘‘पाँच सौ मिलता है। उसमें से मकान का भाड़ा, प्रॉविडेंट फंड, टैक्स आदि देकर साढ़े तीन सौ पल्ले रह जाता है। उसमें से कुछ पिताजी को देता हूँ और शेष में नौकर, रोटी, कपड़ा, वग़ैरा चलता है।’’
‘‘पिताजी को! भला उनको देने की क्या ज़रूरत है?’’
‘‘वे पिता हैं। मैं घर में उनके साथ रहता तो घर-भर के खाने का खर्च देता। अब उन्होंने अलहदा मकान में जाने को कहा है तो उनको प्रति मास अपनी श्रद्धा और सामर्थ्यनुसार दे आता हूँ।’’
‘‘कितनी है तुम्हारी सामर्थ्य?’’
‘‘अभी डेढ़ सौ दे रहा हूँ। वेतन-वृद्धि पर अथवा खर्च बढ़ने पर इस रकम पर दोबारा विचार कर लूँगा।’’
‘‘डेढ़ सौ! बहुत ज्यादा दे रहे हो।’’
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