लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


‘‘नहीं, नूरुद्दीन! जीवन-भर उनसे लेता रहा हूँ। कुछ तो उनको देना चाहिए। लिये हुए के मुकाबिले में तो यह कुछ भी नहीं।’’

‘‘मगर, क्या उनको इसकी ज़रूरत है?’’

‘‘यह देखना मेरा काम नहीं। देखो नूर! अगर उनके पास कुछ है तो उसके उत्तराधिकारी हम दोनों भाई ही तो हैं।’’

‘‘मैं समझता हूँ कि उनको कुछ तुम्हारी सहायता करनी चाहिए। शायद करते भी हों?’’

‘‘करते तो नहीं। मगर मेरी गुज़र हो रही है। अब फ़ीस भी मिलने लगी है।’’

‘‘पर भगवान भापा! एक मोटर चाहिए। मैंने एक मोटर ले ली है। कल सवारी में आ जाएगी। उसके बिना कोई भी डॉक्टर शोभा नहीं पाता। परन्तु भगवान! क्या लालाजी कभी तुमसे पूछते नहीं कि तुम्हारी गुज़र कैसे होती है?’’

‘‘पूछा तो नहीं। बस कुशल-समाचार तो पूछते रहते हैं।’’

‘‘मैं कल उनसे कहूँगा कि तुम्हारे लिए एक मोटर खरीद दें।’’

‘‘नहीं, नूर! तुम मत कहना। मेरे पास मोटर को चलाने के लिए पेट्रोल का खर्च भी नहीं है।’’

‘‘भापा! वह भी मिलना चाहिए।’’

‘‘नहीं, नहीं; मुझको उनसे नहीं माँगना चाहिए। एक-दो वर्ष की बात है। मैं अपने पाँव पर स्वयं खड़ा हो जाऊँगा।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book