उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
इस समय वे कोठी पर पहुँच गए थे। आज वे आठ बजे से पहले ही वहाँ पहुँच गए थे। माला बरमादे में कुर्सी पर बैठी एक बहुत छोटा-सा स्वेटर बुन रही थी। नूरुद्दीन को अपने पति के साथ आया देख, उस स्वेटर को टोकरी में, जो सामने रखी थी, छिपाने लगी। भगवानदास ने बाईसिकल नौकर के हाथ में पकड़ा दी और माला के पास आकर कहने लगा, ‘‘माला! इनको जानती हो?’’
‘‘जी जानती हूँ।’’
‘‘तो खाना लगवाओ। ये आज खाना यहाँ खाएँगे।’’
‘‘और उनकी बीवी ने जो खाना बनाया होगा?’’
‘‘वह कल सुबह कौओं को खिला देंगे।’’ भगवानदास ने कहा दिया।
अब नूरुद्दीन ने मुस्कराकर कहा–‘‘भापा! भाभी ने मेरे लिए बनाया मालूम नहीं होता।’’
‘‘तो आपके आज आने की खबर थी, क्या?’’ माला ने पूछा।
‘‘हाँ, मेरे भापा भगवानदास के घर कभी-कभी आकर खाने की खबर तो आज से बीस साल पहले से है।’’
तीनों हँसने लगे। हँसकर माला ने कहा–‘‘मगर उस समय तो मैं पैदा नहीं हुई थी।’’
सब भीतर खाने के कमरे में जाने लगे तो भगवानदास ने सीताराम से कह दिया, ‘‘सीता! तीन के लिए खाना लगा दो।’’
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