उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
जब ये खाने के कमरे में गए तो भगवानदास अपने सोने के कमरे में कपड़े बदलने चला गया। माला वाश-बेसिन में, जो उसके कमरे में लगा था, हाथ धोने लगी। वह जब कुर्सी पर आकर बैठी तो नूरुद्दीन ने कह दिया, ‘‘भाभी की मरजी नहीं थी कि यह नूरा यहाँ खाना खाए। पर नूरा बेशर्म ऐसा है कि जहाँ खाने की गन्ध आई, खाने बैठ जाता है। क्यों भाभी! ठीक है न?’’
‘‘यह होटल तो है नहीं।’’ माला ने कह दिया।
‘‘लाहौलविला! होटल में खाने के लिए तो इतने तरद्दुद की जरूरत नहीं होती। वहाँ तो दाम से खाने को मिल जाता है। यहाँ भाभी के घर में बिना दाम के खाने आया हूँ।’’
‘‘हाथ धोओ नूर!’’ भगवानदास ने कह दिया। वह कपड़े बदल आया था।
‘‘भापा! मैं यही पूछ रहा था कि भाभी की मरज़ी खिलाने की है या नहीं?’’
‘‘मगर आप तो कह रहे थे,’’ माला ने कह दिया, ‘‘कि ज़बरदस्ती खाने आए हैं।’’
‘‘यह तो तब, जब भाभी की मरज़ी न हो।’’
‘‘अरे भाई, बैठो!’’ भगवानदास ने कह दिया।
नूरुद्दीन ने भी हाथ धोए और खाने के लिए बैठ गया।
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