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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...

2

‘‘आप इसको साथ क्यों ले आए थे?’’

नूरुद्दीन को विदा कर, गोल कमरे में बैठते हुए माला ने कह दिया।

‘‘ले नहीं आया। यह चला आया है और मैं उसको इंकार नहीं कर सकता।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह मेरा दिली दोस्त है। इसके कारण हमारे परिवार को बहुत लाभ हो रहा है।’’

‘‘जो लाभ हो रहा है, वह सब मुझको पता है।’’

‘‘अच्छा मुझको तो पता नहीं था।’’

‘‘मुझको तो अपने विवाह से पहले ही मालूम हो गया था।’’

‘‘ओह! तो तुम बहुत समझदार हो। मुझको तुमसे कुछ सीखना होगा।’’

‘‘आपका दिली दोस्त मेरी बात का समर्थन कर तो गया है। वह कह गया है कि उसकी आपसे साझेदारी की खबर सबको आज से बीस साल पहले से है और विवाह हुआ अभी डेढ़ वर्ष ही हुआ है।’’

‘‘उसका मतलब तो यह है कि वह मेरा तब से दोस्त है, जब हम बहुत छोटी आयु के थे।’’

‘‘जी! मैं भी तो यही कह रही हूँ।’’

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