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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


भगवानदास बताने वाला था कि प्रीमियर कन्स्ट्रक्शन कम्पनी से पिताजी को एक वर्ष में पच्चीस हज़ार का लाभ हुआ है, परन्तु जब-जब भी वह कोई जानकारी की बात अपनी पत्नी को बताने लगता था, वह पहले ही उसके विदित होने की बात कहने लगती थी। इस पर वह चुप रह जाता था। अमीर गरीब को बे-समझ समझते ही हैं। आज भी वह कहता-कहता रुक गया। उसको बात बताने में रस नहीं रहा।

माला ने कह दिया, ‘‘मैं इन लोगों के यहाँ आकर रोटियाँ तोड़ने को पसन्द नहीं करती। उस दिन मोहिनी आई थी। जबरदस्ती माँ के साथ होटल में रोटी खाने चल पड़ी। माँ और भैया क्या कहते होंगे?’’

‘‘क्या कहते होंगे?’’

‘‘यह ठीक नहीं लगता। बिना निमंत्रण के, किसी के घर खाने जाना तो असभ्यता का लक्षण है।’’

‘‘हम हिन्दुओं में तो अतिथि की बहुत महिमा मानी जाती है।’’

‘‘वह क्या होता है?’’

‘‘जो मेहमान बिना ‘नोटिस’ के आए उसकी खातिर करने से बहुत पुण्य मिलता है।’’

‘‘पर देखिए न! अगर घर पर खाना न बना होता तो?’’

‘‘तो उसको आधा घंटा प्रतीक्षा करनी पड़ती। इससे कुछ अनर्थ न हो जाता।’’

‘‘मुझको यह ठीक नहीं लग रहा।’’

‘‘जाने के वक्त बाहर जाकर वह मुझको बधाई दे गया है।’’ भगवानदास की आँखों की चमक बढ़ गई थी। उसने बात बदलने के लिए कह दिया।

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