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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘कैसी बधाई?’’

‘‘कह गया है कि आज से छः महीने के बाद हमारे घर लड़का होगा।’’

‘‘बहुत बेशर्म है!’’

‘‘इसमें बेशर्मी की बात क्या है? तुम सबके सामने जब उसके लिए स्वेटर बुनती रहती हो तो इस बात की डुग्गी पीटने के लिए ही तो है।’’

‘‘तो उसने मुझको बुनते देख लिया है? मैंने तो छुपा लिया था।’’

‘‘आँखों वाले देख लेते हैं।’’

‘‘मगर आपको तो कई दिन तक दिखाई नहीं दिया। यह तो उसका तीसरा स्वेटर है।’’

‘‘मगर मुझको तो इस बात का ज्ञान स्वेटर देखने से बहुत पहले का है।’’

‘‘अच्छा, इसको अब घर मत लाइएगा।’’

मगर अगले दिन करीमा आ पहुँची। माला तो टुकुर-टुकुर मुख देखती रह गई। करीमा बुर्का पहने मोटर में सवार हो आई थी। मोटर से उतरकर वह माला के सामने आकर खड़ी हुई और उसको परेशान देख, मुख पर से बुर्का उठा खिलखिलाकर हँस पड़ी। हँसते हुए उसने पूछा, ‘‘नहीं पहचाना भाभी!’’

‘‘पहचान तो गई हूँ। मगर कैसे आई हो?’’

‘‘भाभी के दीदार हासिल करने।’’

‘‘क्या पड़ा है इन दीदारों में?’’

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