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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘अब तो बहुत कुछ है। कुछ तो पहले भी था। मगर अब भाभी के देवर कह रहे थे भाभी सवाई हो रही है। इसलिए आई हूँ! भाभी! मैं इस वक्त क्या खिदमत कर सकती हूँ?’’

‘‘मुझको मिलने मत आया करो।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, कह दिया। मैं जब तुमको देखती हूँ तो मेरे दिल में काँटा-सा चुभने लगता है।’’

‘‘यही तो पूछ रही हूँ कि यह काँटा क्यों चुभता है?’’

‘‘सब औरतों को अपनी सौतें देखकर ऐसा होता ही है।’’

यह सुनकर करीमा बरामदे में रखी एक कुर्सी पर ही बैठ गई और बोली, ‘‘भाभी! बैठ जाओ। बहुत देर तक खड़े रहने से कोई कष्ट न हो जाए।’’

विवश माला बैठी तो करीमा ने कह दिया, ‘‘तो तुम अपने को मेरी सौत मानती हो, भाभी! यह है तो खराब बात, मगर मैं कहती हूँ कि मुझको तो इससे दिल में काँटा चुभने की जगह निहायत खुशी महसूस होती है।’’

‘‘तो क्या खराब बातों से भी खुशी होती है?’’

‘‘हाँ, जब सौत भाभी जैसी-नेक औरत बन जाए तो खुशी होती है। कहीं कोई चकले की आवारा औरत होती तो बहुत बुरा होता।’’

‘‘बहुत बशर्मी की बातें करती हो तुम?’’

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