उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘यह बात तो भाभी ने की है। मैं तो यह पूछने आई थी कि इस हालत में अकेली बैठे रहने से मन उदास होता हो तो या तो माँजी के घर चली आओ या मैं तुम्हारे घर में आकर रहने लगूँ।’’
‘‘नहीं। मेरा मन उदास नहीं। अभी चार महीने तो मैं यहाँ रहूँगी। उसके बाद अपनी माँ के घर चली जाऊँगी।’’
‘‘देख लो। हम तो सब तरह से हाज़िर हैं।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि अगर इतना ही काम था तो अब तुम जा सकती हो।’’
‘‘तो कुछ चाय वग़ैरा को नहीं पूछोगी?’’
‘‘चाय का अभी वक्त नहीं है?’’
‘‘कितने बजे चाय का वक्त होता है?’’
‘‘पौने चार बजे।’’
करीमा ने कलाई पर बँधी सोने की घड़ी में समय देखा और कह दिया, ‘‘बस पौना घंटा रह गया है। इतनी देर तक एक-दो मीठी-मीठी बातें करेंगी। फिर चाय पिऊँगी। भैया आ जाएँगे तो उनको मोटर में शहर वाले मतब (क्लिनिक) में ले जाऊँगी।’’
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