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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


विवश, माला को उसकी संगति में रहना पड़ा। अब करीमा ने माला के माता-पिता के स्वास्थ्य के विषय में पूछना आरम्भ कर दिया। उसके माता-पिता, भावज-भाई और उसके बहन-बहनोई की चर्चा चलने लगी। अपने मायके वालों की बातें माला बहुत रुचि से करने लगी। आधा घंटा व्यतीत हो गया। अब करीमा ने अपने माता-पिता की बात आरम्भ कर दी। उसने कहा–‘‘मेरे वालिद बहुत ही गरीब थे। जब मेरे विवाह की बातचीत हो रही थी, वे परेशान थे कि विवाह पर खर्च कहाँ से करेंगे। विवाह के कुछ दिन पहले मुनव्व के वालिद आ गए। उन्होंने हमारे घर का दरवाजा खटखटाया तो मैंने ऊपर से झाँककर देखा। रात का वक्त था। मैं पहचान नहीं सकी और पूछ लिया, ‘कौन है?’ वे बोले, ‘सादिक साहब हैं?’ मैंने अब्बा को नीचे भेजा। मैं और अम्मी अब्बा के पीछे छुपकर सुन रही थीं कि यह कौन बला आई है। अम्मी ने पहले पहचाना। वे इतना कहकर चले गए कि हमको शादी पर कुछ भी खर्च नहीं करना चाहिए और चुपचाप आले में पाँच सौ रुपया रख गए। अँधेरे में उनको रखते हुए किसी ने नहीं देखा। अगले दिन माँ ने सफाई करते वक्त रुपया देखा तो रुपया वापस करने की बात होने लगी। मगर हमारी मज़बूरी थी। वह रुपया अंधे को दो-दो आँखें मिलने की बात हुई। उस रुपये से मेरे कपड़े बने, आभूषण बने और फिर छोटी-सी बाराए में आए मेहमानों में मिठाई बाँटी गई।

‘‘यह रुपया अब तक नहीं दिया जा सका। मुनव्वर के पैदा होने के बाद की बात है, एक दिन, मैं उनके हिसाब की किताबें देख रही थी। इनकी बही में लिखा देखा–‘कम्मो, पाँच सौ रुपए।’’

‘‘मैं समझ गई। फिर भी मुनव्वर के पिता से पूछ बैठी। इन्होंने बही देखी तो मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘यह तुम्हारे नाम नहीं। बल्कि एक शै खरीदी थी। उसका दाम लिखा है।’’

‘‘शै?’’ मैंने हैरानी से पूछ और इन्होंने हँसकर कहा, ‘‘हाँ, इस कम्मो के वालिद बहुत ही सीधे-सादे आदमी हैं। इन्होंने एक लाख रुपए की शै पाँच सौ में दे दी। मुझको कामिल यकीन है कि अब इनको इस सौदे का अफ़सोस लग रहा होगा।’’

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