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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘तो यह कम्मो लाख रुपए दाम की है?’ मैंने पूछा। इनका कहना था–‘‘हाँ! यह तो कम-से-कम दाम बता रहा हूँ। मैं तो कई लाख दाम लगाता था। मगर इतने से कम नहीं।’’

‘‘एक और भी सौदा इन्होंने किया है। एक लाला लोकनाथ हैं। उनको ये और इनके वालिद खरीदने चल पड़े। लालाजी को ये जानते तो थे, उनसे काम भी लेते थे, मगर उनको ही अपनी मल्कियत बनाने के लिए कोशिश होने लगी। आखिर मुनव्वर के बाप ने एक तजबीज़ चलाई। लाला लोकनाथ जी के लिए बारह हज़ार की लागत से मकान बनवा दिया। वे मकान का दाम देते थे, मगर ये तो लालाजी को ही खरीदना चाहते थे। आखिर मकान देकर लालाजी को मोल ले लिया। उससे इनको, इनका कहना है, दस लाख रुपए का माल मिल गया है।’’

‘‘मैंने एक दिन कहा भी कि यह सौदा बहुत महँगा हुआ है। उन्होंने पूछ लिया, ‘‘कौन-सा सौदा?’’

‘‘यह लालाजी को मकान देकर लेने का?’’

‘‘मुनव्वर के बाप कहते हैं कि लालाजी को इन्होंने ठग लिया है।’’

‘‘तो तुम मुझको खरीदने आई हो?’’ माला ने पूछा।

‘‘पर, मैं तो खुद बिकी हुई हूँ।’’

इस समय भगवानदास कॉलेज से आ गया। ‘‘ओह! करीमा भाभी! आज तो बहुत मेहरबानी की है जो यहाँ दर्शन दिए हैं?’’

‘‘भाभी से मिले बहुत दिन हो गए थे। आज ख्याल आया कि ये तो मिलने आएँगी नहीं, खुद ही चलना चाहिए।’’

‘‘तो मिली हो?’’

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