उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘हाँ, यहाँ आए डेढ़ घण्टे के करीब हो गया है। भाभी तो बिना चाय-पानी पूछे टरका रही थीं, मगर मैंने कह दिया चाय पीकर ही जाऊँगी।’’
भगवानदास हँस पड़ा। हँसकर और बात बदलकर पूछने लगा, ‘‘यह मोटर आपने मोल ली है?’’
‘‘जी! मेरी ख्वाहिश थी कि चाय पी लें और ज़रा भाभी को लेकर इसमें सैर करें।’’
‘‘नहीं, मैंने बहुत सैर की है मोटरों की। यह तो उनको कराएँ जिन्होंने कभी मोटर देखी न हो।’’ माला ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा।
‘‘भापा! आप मोटर लेते क्यों नहीं? भाभी के माता-पिता ने आपको मोटर के लिए दाम तो दे रखा है।’’
‘‘अभी मोटर चलाने के लिए पेट्रोल का दाम नहीं है।’’
‘‘तो वह इनकी माताजी ने नहीं दिया?’’
‘‘नहीं, पूछ लो। शायद इनको प्राइवेट रूप में दिया हो।’’
माला ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा–‘‘उनको यह पता नहीं था कि मेरे श्वसुर इतने कंगले हैं कि सौ रुपया महीना भी खर्च नहीं कर सकेंगे।’’
इस समय चाय आ गई। करीमा ने चाय बनाते हुए कह दिया, ‘‘कोई कह रहा था कि वे तो पेट्रोल के लिए हर महीने भाभी को खर्च दे जाते हैं।’’
‘‘कौन कह रहा था?’’ भगवानदास ने विस्मय में पूछा।
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