उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘आपके दोस्त ही तो कुछ ऐसी बात कह रहे थे। मुझको कुछ ऐसा पता चला है कि डेढ़ सौ रुपया महीना लालाजी मोटर खर्च के लिए दे जाते हैं।’’
‘‘किसको?’’
‘‘भाभी को। मगर भापा। मैं पक्की बात नहीं कर सकती। मेरे समझने में भी भूल हो सकती है। भाभी से ही पूछ लें। क्यों भाभी! यह सच है क्या?’’
भगवानदास विस्मय में अपनी पत्नी का मुख देखने लगा, तो माला ने बात बदल दी, ‘‘इस औरत की बात पर मत जाइए। यह तो अभी कह रही थी कि इसके श्वसुर और खाविंद ने आपके पिताजी को बारह हज़ार रुपए में मोल ले रखा है।’’
मकान की घटना का वृत्तान्त भगवानदास को विदित था। उसने कहा, ‘‘हाँ, एक ख्याल से यह ठीक कहती हैं। पिताजी ने इसके श्वसुर को एक हज़ार रुपया किसी समय दिया था। तब इनकी हालत पतली थी। जब इन्होंने कुछ पैसा पैदा कर लिया और इनका कारोबार चलने लगा, तब नूरुद्दीन के वालिद एक हज़ार रुपए लेकर आए। उस समय पिताजी ने रुपया वापस नहीं लिया। पिताजी ने हँसी-हँसी में कह दिया, ‘‘हमने तो खुदाबख्श को एक हज़ार में गिरवी रखा हुआ है। हम उसको छोड़ नहीं सकते। उस वक्त खुदाबख्श एक हजार का था, अब वह पचास हज़ार का है।’’
‘‘उन्होंने रुपया नहीं लिया और कह दिया कि इस रुपए से बहू के लिए ज़ेवर तथा कपड़े बनवा दिए जाएँ।’’
‘‘नूरुद्दीन के वालिद कहने लगे, ‘मैं अपने को गिरवी से छुड़ाने आया हूँ।’ पिताजी बोले–‘पर मैं बेवकूफ नहीं हूँ जो पचास हज़ार की चीज़ को एक हज़ार में लौटा दूँ।’’
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