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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘नूरुद्दीन के वालिद समझ गए। इसलिए उस समय तो वे चुप रहे और उस हज़ार रुपए को उन्होंने अपने कारोबार में हिल्ला समझ लिया। अब वे कहते हैं कि उनके कारोबार की सब पूँजी उसी एक हज़ार रुपए की है। इस वक्त कई लाख रुपए की हो गई है। वे समझते हैं कि पूँजी तो सब पिताजी की है, वे केवल मज़दूरी के हकदार हैं।’’

‘‘अब नूरुद्दीन ने एक और चाल चली है। उसने चार वर्ष हुए, हमारा नया मकान बनवा दिया है। उस पर बारह हजार की लागत आई थी। पिताजी वह बाह रह हजार देने लगे तो उन्होंने हिसाब लगाकर दिखा दिया कि उस बारह हज़ार का कई लाख हो गया है और जीवन के अन्त से पहले दस लाख हो जाएगा। अतः वे कहते हैं कि बारह हज़ार से हमने दस लाख का आदमी बाँध रखा है।’’

‘‘अब समझी’’, माला ने कहा, ‘‘चोरी का माल और लाठियों के गज़।’’

‘‘कौन चोरी का माल है किसकी लाठी गज़ बना रही हो?’’’

‘‘एक हजार में पचास हज़ार और बारह हज़ार के दस लाख।’’

इस पर तीनों हँसने लगे।

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