उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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अगले दिन ठीक नौ बजे एक चक्कर काम पर लगाने के बाद नूरुद्दीन भगवानदास की कोठी पर जा पहुँचा। भगवानदास अपनी ससुराल से लौटा ही था। नौकर अल्पाहार बना रहा था। नूरुद्दीन की मोटर के आने का शब्द सुन भगवानदास कोठी से बाहर आ गया। नूरुद्दीन ने मोटर से निकलते ही पूछा, ‘‘वहाँ गए थे?’’
‘‘अभी आया हूँ।’’
‘‘कैसी है?’’
‘‘वह तो अभी भी नहीं मिली। उसकी माँ भीगी आँखों से बाहर आयी थी और कह गयी थी कि वह रात-भर सोई नहीं। अब जरा आँख लगी है।’’
‘‘मैं आधा घण्टा उसकी आँख खुलने की प्रतीक्षा करता रहा। रामकृष्ण ने एक बात और बताई है।’’
‘‘क्या?’’ नूरुद्दीन ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘वह यह कि पिताजी माला से छेड़खानी करते रहे हैं। जब से वह इस कोठी में आई थी, वे मेरी अनुपस्थित में आया करते थे और उससे मुहब्बत प्रकट करने की कोशिश किया करते थे। कल भी वे आए थे और बात सीमा से बढ़ गई तो वह कोठी से वहाँ भाग गई है। पिताजी के व्यवहार का उसके दिल पर बहुत बड़ा सदमा पहुँचा है।’’
‘‘और तुमको उसके कहने पर विश्वास आ गया?’’
‘‘मैं कैसे विश्वास कर सकता हूँ? मैं समझता हूँ कि मेरा दिमाग़ अभी तक ठीक काम करता है।’’
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