उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘अच्छा भाई! एक गिलास पानी ले आओ।’’
नौकर पानी लेने गया तो भगवानदास ने कह दिया, ‘‘मैंने फैसला कर लिया है कि अब मैं इस औरत का मुख नहीं देखूँगा।’’
‘‘कब तक?’’
‘‘मरण-पर्यन्त।’’
नूरुद्दीन टुकर-टुकर मुख देखता रह गया। सीताराम जल लाया। उसने जल पिया और चुपचाप बैठा रहा। भगवानदास ने अल्पाहार समाप्त किया, कपड़े पहने और हस्पताल की ओर चल पड़ा। नूरुद्दीन कुछ दूर तक उसके साथ गया। उसने केवल एक बात कही, ‘‘अच्छा दोस्त! इसमें जो कुछ भी करना हो, मुझसे और लालाजी से राय करके ही करना।’’
‘‘मुझे कुछ नहीं करना है। मैं अब उससे मिलने नहीं जाऊँगा। एक-आध महीने में, मैं यह मकान भी छोड़ दूँगा और वहीं पिताजी के पास चलकर रहूँगा।’’
‘‘अच्छा, अब तुम चलो। फिर बात करेंगे।’’
भगवानदास ने अनारकली बाज़ार से गुज़रना छोड़ दिया। लोकनाथ ने अपनी पत्नी और लड़की से स्पष्ट कह दिया कि वे माला से मिलने न जाएँ। करीमा को भी नूरुद्दीन ने यही हिदायत कर दी थी।
एक महीने के बाद भगवानदास ने सरकारी कोठी छोड़ दी। वह अपने पिता के साथ आकर रहने लगा। दोनों घरों में एक ही सम्बन्ध था। वह था, राधा पंडिताइन। वह कभी-कभी शरणदास के घर जाती और माला के समाचार लाकर सुना जाया करती थी।
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