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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


राधा उधर जाकर माला और उसकी माँ को क्या बताती थी, यह उसने रामदेई इत्यादि को कभी नहीं बताया। इनको वह सदा यह बताती रहती थी कि माला खुश है, स्वस्थ और प्रसव के समीप होती जा रही है।

रामदेई इत्यादि ने यह निश्चय कर रखा था कि वे माला की निन्दा अथवा प्रशंसा कुछ भी नहीं करेंगे।

एक दिन राधा आई और रामदेई से कहने लगी, ‘‘बहू को पीड़ाएँ हो रही हैं।’’

‘‘कब की बात करती हो?’’

‘‘मैं अभी-अभी वहाँ से आ रही हूँ।’’

‘‘परमात्मा भली करे।’’

‘‘तो बहन, जाओगी न?’’

‘‘नहीं!’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम उससे ही पूछना।’’

‘‘बहन! मैं दोनों घरो का अन्न खाती हूँ। इससे इधर की बात उधर नहीं करती। मगर अब तो मुहल्ले में भी इसका चर्चा होने लगी हैं। इसलिए मैं समझती हूँ कि इस वक्त भले ही दिखावे के लिए चली जाओ तो ठीक ही रहेगा।’’

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