उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मैं भगवान से पूछ लूँ। तब ही जा सकती हूँ।’’
‘‘तो उसने मना कर रखा है?’’
‘‘देखो पंडिताइन! बहू उसकी है। वह यहाँ आएगी तो उसके साथ रहने के लिए ही आ सकती है। मैं इस विषय में अपने पुत्र के अधीन हूँ।’’
राधा चुप रही। अगले दिन वह आई तो उसने बताया, ‘‘भगवानदास के लड़का हुआ है।’’
‘‘कैसा है?’’
‘‘गोल-मटोल और गोरा-गोरा है।’’
इससे आगे रामदेई ने कुछ नहीं पूछा। राधा भी समझ गई कि भगवानदास ने माँ को बहू को देखने जाने की स्वीकृति नहीं दी है।
समय व्यतीत होता गया। एक-दो-तीन करते-करते पाँच वर्ष बीत गए। भगवानदास का चिकित्सा-कार्य चलता रहा। वह कॉलेज में भी पढ़ता था। वेतन के अतिरिक्त भी उसको पाँच-छः सौ रुपए फीस की आय होने लगी थी। इस समय वेतन भी सात सौ रुपए महीना था। लोकनाथ ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और वह कन्स्ट्रक्शन कम्पनी में काम करता था। यह कम्पनी अब बड़े-बड़े ठेके लेने लगी थी। लाहौर नगर विस्तार पा रहा था। इस कम्पनी ने एक काम करना और आरम्भ कर दिया था। वे भूमि मोल लेते थे। उस पर मकान बनाते थे और फिर बेच देते थे। इस प्रकार भारी लाभ हो रहा था। अब कम्पनी दो दिशाओं में काम कर रही थी। लोगों के लिए और सरकार के लिए इमारतें बनवाती थी अथवा स्वयं मकान बनाकर लोगों को देती थी।
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