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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


एक दिन भगवानदास कॉलेज से निकल, घर को पैदल ही जा रहा था कि शरणदास उसको सामने से आते हुए मिला। वह मोटर में था। उसने मोटर रोक ली और नीचे उतर भगवानदास के सामने खड़ा हो गया। भगवानदास आँख बचाकर निकल जाना चाहता था, परन्तु जब शरणदास सामने ही आकर खड़ा हो गया तो उसने हाथ जोड़ नमस्ते कर दी। शरणदास ने पूछा, ‘‘तुम लाहौर में ही रहते हो, भगवानदास!’’

‘‘जी, आपकी कृपा से अभी जीवित हूँ।’’

‘‘तुम्हारे कभी दर्शन नहीं हुए?’’

‘‘कम-से-कम आज तो हो ही गए हैं?’’ भगवानदास से मुस्कराते हुए कह दिया।

‘‘बीवी को अपने घर ले जाना चाहते हो या नहीं?’’

‘‘वह वे जाने योग्य नहीं रही।’’

‘‘क्या खराबी हो गई है उसमें?’’

‘‘यह तो उससे ही पूछ लेते तो ठीक था।’’

‘‘पूछकर ही कह रहा हूँ।’

‘‘तो उसने कुछ नहीं बताया?’’

‘‘बताया है। जो कुछ बताया है, वह मैं यहाँ सड़क पर खड़ा-खड़ा नहीं सुना सकता।’’

‘‘तो फिर किसी दिन घर आकर सुना जाइए।’’

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