उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘तो आओ मेरे साथ।’’ शरणदास ने खड़ी मोटर की ओर संकेत कर दिया।
‘‘आपके घर तो मैं जाऊँगा नहीं। अपने घर आपको ले जा सकता हूँ। मगर इस गाड़ी में नहीं, ताँगे में?’’
‘‘इस गाड़ी में क्या खराबी है?’’
‘‘जो आपके घर में है।’’
‘‘मैं समझा नहीं?’’
‘‘इससे अधिक जानने की आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘अच्छा आऊँगा। तुम्हारे घर पर ही आऊँगा। आज नहीं, फिर किसी दिन।’’
शरणदास नहीं आया। आठ वर्ष और बीत गए। अब नूरुद्दीन ने बाहर कोर्ट रोड पर एक बहुत बड़ी कोठी बनवा ली थी। उतनी ही जमीन पर उतनी ही बड़ी, बिल्कुल उसकी बगल में एक कोठी डॉक्टर भगवानदास ने बनवा ली थी। वह अपने माता-पिता को लेकर उसमें जाकर रहने लगा था। भगवानदास के भाई नरोत्तम ने इंजीनियरिंग पास कर ली थी। उसने भी पहले पंजाब गवर्नमेण्ट की नौकरी की थी, परन्तु एक दिन वहाँ से त्यागपत्र देकर घर आ गया। उसकी नौकरी जिला काँगड़ा में लगी हुई थी और वहीं उसने एक लड़की से विवाह कर लिया था। अपने अधिकारियों से एक मामूली-सी बात पर झगड़ा हुआ तो लम्बी छुट्टी लेकर चला आया। यहाँ पहुँच उसने त्याग-पत्र भेज दिया। इस प्रकार उसने भी कारोबार आरम्भ कर दिया। रेलवे रोड पर मशीनरी की दुकान खोल जीविकोपार्जन करने लगा था। वह भी भगवानदास की कोठी में ही रहता था।
यों भी भगवानदास के दूसरे विवाह की चर्चा कई बार हुई थी, मगर वह मानता नहीं था। आयु तो कुछ बड़ी नहीं हुई थी। इस समय वह चौंतीस वर्ष का था। परन्तु अपने प्रथम विवाहित जीवन के अनुभव से उसका दिल बुझ-सा गया था।
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