उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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जब नरोत्तम लाहौर आकर रहने लगा तो उसकी पहाड़िन बीवी ने, सौन्दर्य में अनुपम अपनी छोटी बहन का सम्बन्ध अपने जेठ से करने के लिए यत्न किया। उसने बहन को लाहौर बुलाकर अपने पास रखा। मगर डॉक्टर विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ।
कई महीने के यत्न पर भी जब भगवानदास ने सुलक्षणा की बहन सुन्दरी को स्वीकार नहीं किया तो उसने अपने पति से उसके विवाह का प्रबन्ध करने के लिए कहना आरम्भ कर दिया। जब बात लोकनाथ के कानों में आई तो उसने अपनी पुत्रवधू को बुलाकर पूछा, ‘‘क्या चाहती हो?’’
‘‘सुन्दरी का विवाह कहीं लाहौर में हो जाए।’’
‘‘अन्यत्र क्यों नहीं?’’
‘‘मैं चाहती हूँ कि मेरी बहन भी मेरी भाँति ही राज करे।’’
‘‘देखो सुलक्षणा! धनी तो बहुत मिल जाएँगे, एक धनी परिवार हमको भी मिला है। भगवानदास का इतिहास तुमने सुना है। धन में एक दोष होता है। वह बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। यह अभिमान का उद्गम स्थान है और अभिमान से विनाश अवश्यम्भावी है।’’
‘‘परन्तु आप में तो वह बात दिखाई नहीं देती।’’
‘‘इसलिए कि तुम्हारी सास में ईश्वर का भय है।’’
‘‘तो संसार में अन्य कोई नहीं, जिसकी माँ के मन में ईश्वर का भय हो?’’
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